जैन आयोग रिपोर्ट विवाद सबसे गंभीर मुद्दे से सब बेखबर :: विनीत नारायण


November 14, 1997

First Published on Friday, November 14th, 1997 by Vineet Narain

जैन आयोग की रिपोर्ट पर लिखने, बोलने और भविष्यवाणियां करने वाले तमाम लोग एक गंभीर तथ्य को पूरी तरह अनदेखा कर रहे हैं। वह यह की इतना महत्वपूर्ण दस्तावेज गृह मंत्रालय से ‘लीक’ कैसे हो गया ? अगर यह सूचना लीक हो सकती है, तो देश का कोई भी रहस्य गोपनीय नहीं है। यानी सरकार ऐसी निकम्मे लोगों के हाथ में है, जो ‘पद और गोपनीयता की शपथ’ पालन करने में अक्षम हैं। यह बेहद खतरनाक स्थिति है। इससे जुड़े कई महत्वपूर्ण सवाल और भी हैं।

उधर दिल्ली के आधा दर्जन वरिष्ठ पत्राकारों में इस रिपोर्ट को लीक करने का श्रेय लेने की होड़ मची है। इनमें से हरेक का दावा है कि उसके पास इस रिपोर्ट की जानकारी पहले से ही थी और उसने इस जानकारी के अंश प्रकाशित भी किए थे। अगर यह सच है तो आश्चर्य जनक है कि एक ‘गोपनीय’ कहा जाने वाला दस्तावेज ‘गोपनीय’ कैसे रहा ?

जैन आयोग ने यह रपट 28 अगस्त 1997 को गृह मंत्रालय को साSपी थी। सरकार को इस पर निर्णय लेना था कि इसे सदन में पेश करे या न करे ? करे तो कब करे, इसका कितना अंश करे ? क्योंकि इस रपट में मात्रा एक पूर्व प्रधानमंत्रh की हत्या से जुड़े तथ्य ही नहीं हैं बल्कि देश की विदेश नीति और पड़ौसी देशों से उसके संबंधों के बारे में भी काफी गोपनीय जानकारी है। इस जानकारी को जगजाहिर करने के कई दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इसके कारण भारत की अंतर्राष्ट्रीय साख पर और पड़ौसी देशों की जनता के मन पर विपरीत प्रभाव भी पड़ सकता है। इसका अर्थ यह नहीं कि दोषियों को सजा ही न दी जाए। इसका अर्थ ये भी कतई नहीं कि लोकतंत्रा में जनता से सच्चाई छिपाई जाए। सूचना का अधिकार मांगने वाले भी यह जानते हैं कि अkतरिक और बाहृय सुरक्षा से जुड़े तमाम मसले अत्यंत गोपनीय किस्म के होते हैं। उनका इस तरह बिना किसी पूर्व तैयारी के अचानक खुलकर सामने आ जाना, देश की स्थिरता को डांवाडोल कर सकता है।

जिस तरह से गृह मंत्रालय से यह रिपोर्ट लीक हुई है वह बहुत ही खतरनाक बात है। पूरे देश की जनता का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया जाना चाहिए कि गृह मंत्रालय के अधिकारी इतने निकम्मे या लापरवाह हैं कि इतने महत्वपूर्ण दस्तावेज को भी सुरक्षित नहीं रख सके। यह तो एक मामला है जो देश के सामने आ गया। इस तरह तो न जाने कितनी गोपनीय जानकारियां गृह मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय और भारत सरकार के अन्य मंत्रालय चुपचाप देशद्रोहियों तक सरका रहे होंगे। जिसकी देश को जानकारी नहीं है। प्रायः यह ‘लीकेज’ या तो मोटी रकम पाने की एवज में किए जाते हैं या विदेशी ताकतों की जासूसी करने के लिए या फिर भारत के ही अपने आका-राजनीतिज्ञों की चाटुकारिता करने के लिए ? तीनों में ही लीकेज करने वाला, निजी लाभ को राष्ट्र के हित से ऊपर रख कर देखता है। तभी इतना गंभीर अपराध करने का दुस्साहस करता है।

गृह मंत्रालय के पास देश की साम्प्रदायिक स्थिति, अपने अद्धसैनिक बलों की स्थिति और आतंकवादियों व विदेशी खुफिया संगठनों की गतिविधियों से जुड़ी तमाम जानकारी नियमित रूप से आती है। यह जानकारी फिर ‘गोपनीय’ या ‘अत्यंत गोपनीय’ दस्तावेजों की श्रेणी में, फाइलों में कैद हो जाती है। जिसका उपयोग सरकार प्रशासन चलाने में करती है। सामरिक व नीतिगत निर्णय लेने में इस जानकारी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर यह जानकारी जैन आयोग की रिपोर्ट की तरह लीक करा दी जाती है तो देश का कितना बड़ा अहित हो रहा है ?

गृह मंत्रालय का जब यह हाल है तो रक्षा मंत्रालय, विज्ञान व तकनीकि मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और दूसरे मंत्रालयों की गोपनीयता के बारे में क्या आश्वस्त रहा जा सकता है ? नहीं। यानी पूरी की पूरी सरकार ऐसी लापरवाही  से  चलाई जा रही है कि देश के हितों का कोई ध्यान नहीं रखा जा रहा। इतना बड़ा और संगीन अपराध करके भी प्रधानमंत्रh और संयुक्त मोर्चे के घटक दलों के नेता केवल अपनी कुर्सी बचाने में जुटे हैं।

गृहमंत्रh ने इस मामले में जांच कराने का आश्वासन दिया है। पर जांच का क्या मायना है ? आज तक जो जांचे पहले कराई गई, उनका क्या हुआ ? उनकी रिपोर्ट कहां गई ? क्या उनमें कुछ लोगों को सजा मिली ? नहीं। तो यह जांच क्या कर देगी ? इससे क्या यह सुनिश्चित हो जाएगा कि भविष्य में देश के हितो के विरूद्ध गोपनीय जानकारी किसी तरह लीक नहीं होगी ?

एक प्रमुख दल के वरिष्ठ नेता ने बहुत दबी जुबान में बात उठाई है और यह भी कहा है कि उनका दल इस मुद्दे पर संसद में शोर मचाएगा। हकीकत यह है इसी दल के नेता पिछले दिनों ऐसे कई मुद्दों पर शोर मचाने और सरकार को कटघरे में खड़ा करने की घोषणा कर चुके हैं और बाद में अनजान कारणों से अपनी घोषणा से ही मुकर जाते हैं। वैसे भी मात्रा कह भर देने से कोई देश का ध्यान इस ओर आकर्षित नहीं हो जाएगा। इसके लिए तो विशेष प्रयास करना होगा जिसके लिए शायद यह दल तैयार नहीं। क्योंकि उसके लिए भी आज कुर्सी हथियाने की लालसा राष्ट्रहित से ऊपर हो गई है।

बार-बार सरकार से समर्थन वापिस लेने की धमकी ‘ब्लैक मेलिंग’ से ज्यादा कुछ नहीं है। इससे यही लगता है कि धमकी देने वाले अपने और अपने समर्थक औद्योगिक घरानों के अटके अवैध काम करवाने के लिए यह धमकी देते हैं। जब काम हो जाता है तो अपना तेवर बदल लेते हैं। जबकि हालात वहीं के वहीं रहते हैं। अखबार में जो बयान छपते हैं, उनमें जो मुद्दे उछाले जाते हैं वो सिर्फ जनता को भ्रमित करने के लिए होते हैं। अंदर ही अंदर दूसरी खिचड़ी पकती रहती है।

दरअसल इन राजनेताओं और विभिन्न दलों को अपने मतदाताओं और देश की चिंता होती तो यह लोग इस अस्थिरता का फायदा उठाकर और सरकार पर दबाव डालकर ऐसे तमाम कानून पास करवाते जो देश के लोगों को राहत देने वाले हों। यह राजनेता ऐसी नीतियां बनवा सकते हैं जो लोगों के फायदे की हों। जिन मुद्दों को विपक्षी दल आज तक उठाते आए और उन पर शोर मचाते आए, उन सबको भी वे आज भूल गए हैं। अब तक उनका तर्क होता था कि नेहरू खानदान का वंशवाद या कांग्रेस का सत्ता पर एकाधिकार, ऐसा नहीं होने दे रहा है। अब तो दोनों समाप्त है फिर यह ढीलापन क्यों ?

एक बार को मान भी लें कि इनका विरोध मुद्दों पर होता है। तो यह बार-बार की धमकी का नाटक क्यों? अभी केसरी कुछ कहते हैं और 24 घंटे बाद कुछ और। इंका अध्यक्ष सीताराम केसरी के सामने तो बहुत बड़ी दुविधा है। अगर समर्थन वापिस लेते हैं तो सरकार गिरेगी और चुनाव होंगे। जिसमें कांग्रेस को उल्लेखनीय सफलता मिलने की संभावना बहुत कम है। अगर समर्थन वापिस नहीं लेते हैं और द्रमुक समर्थित सरकार चलने देते हैं तो सोनिया खेमा चैन से नहीं बैठने देगा। बाकी बची तीसरी स्थिति वह यह कि उत्तर प्रदेश की तरह कांग्रेस का विघटन हो जाने दें और भाजपा को सरकार बनाने दे। इस डर से कुछ तय नहीं हो पा रहा। यही हाल दूसरे नेताओं का भी है। अगर वाकई मुद्दों पर विरोध है और सरकार निकम्मी है तो उसे एक झटके में गिरा क्यों नहीं देते ? पर गिराना भी नहीं चाहते क्योंकि रूह कांपती है कि मतदाताओं के पास क्या मुंह लेकर जाएंगे ? फिर गिराएं तो तब जब नेता के पीछे उसके दल के सारे सांसद चट्टान की तरह खड़े हों। हकीकत यह है कि ज्यादातर सांसदों की आस्था अब न तो दल में है और न किसी विचारधारा में। उन्हें पता है कि चुनाव की स्थिति में उनका अपना काम और व्यक्तिगत लोकप्रियता का ही फायदा उन्हें मिलेगा। नेता या दल का उतना नहीं जितना पहले मिलता था। ऐसे में वे अपना स्वार्थ पहले देखते हैं। इसलिए पार्टी नेताओं के मन में यह डर बैठा हुआ है कि अगर कोई कड़ा कदम उठा लें तो कहीं उत्तर प्रदेश के विधायकों की तरह सभी दल टूट कर नई सरकार में शामिल न हो जाए।

इस तरह की बार-बार की धमकियों से देश में अस्थिरता का माहौल लगातार बना हुआ है। जिसका विपरीत प्रभाव देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। आज बाजार में भारी चिंता व अनिश्चितता है। व्यापारी, कारखानेदार, भवन निर्माण वाले, शेयर मार्केट सभी बेचैन हैं। हाल में हुए एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार अगर बीस वर्ष तक भारत अपने विकास की दर 7 फीसदी पर स्थिर रख पाता है तो देश की गरीबी मात्रा 6 फीसदी रह जाएगी। इसमें शर्त यह है कि विकास के लाभ का वितरण ठीक तरह से हो। पर आज तो उलटा हो रहा है। खुद सरकार ने ही, विकास की दर का अपना लक्ष्य 7 फीसदी से घटाकर 6 फीसदी कर दिया है। कुल जमा बात यह है कि धमकियां देकर राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने वाले अर्थव्यवस्था और जन-जीवन से खिलवाड़ कर रहे हैं।

इन हालातों में देश की जनता को तो राम भरोसे छोड़ दिया गया है। गोपनीयता, स्थायित्व, विकास दर, आंतरिक व बाहृय सुरक्षा सभी को तिलांजली देकर एक-दूसरे की टांग खींचने और कुर्सी हथियाने का सर्कस चालू है। जैन आयोग की रिपोर्ट के लीक होने से उठे व जन-हित से जुड़े इन गंभीर मुद्दों पर किसी का ध्यान नहीं है।

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