First Published on Saturday, December 20, 1997 by Vineet Narain
मध्यावधि चुनाव में भाजपा अटल बिहारी बाजपेयी जी को बतौर भावी प्रधानमंत्रh पेश कर रही है। भाजपा का दावा है कि उसे बहुमत मिलेगा और अगली सरकार भाजपा ही बनाएगी। बाजपेयी उसे सक्षम नेतृत्व प्रदान करेंगे। भाजपा इन चुनावी नारों को लेकर बड़े उत्साह में है। वह जानती है कि इन चुनावों में कांग्रेस की कोई विशेष उपस्थिति नहीं है। संयुक्त मोर्चा ही भाजपा का एक मात्रा प्रबल प्रतिद्वंदी है।
भाजपा दरअसल बाजपेयी जी की गैर विवादास्पद छवि को भुना कर सत्ता तक पहुंचना चाहती है। हाल ही में भाजपा की प्रतिष्ठा को एक गहरा धक्का लगा था। जब उसने उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बचाने के लिए आपराधिकरण तक का सहारा लिया। उत्तर प्रदेश के अलावा गुजरात, राजस्थान और दिल्ली में भी भाजपा सरकारों की नाकामियों और भ्रष्टाचार के कारण भाजपा की राजनैतिक प्रतिष्ठा आज चुल्लू भर ही रह गई है। इन सब कारणों से अब केंद्र में सरकार बनाने के लिए बाजपेयी जी की छवि का इस्तेमाल करना भाजपा की राजनैतिक मजबूरी बन गई है। ऐसे में भाजपा ने बाजपेयी जी का नाम प्रधानमंत्रh पद के लिए पेश कर उन्हें भाजपा के मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया है। पर बाजपेयी जी को इस पर अब कोई आपत्ति नहीं है। आज जब प्रधानमंत्रh पद के लिए सभी छोटे-बड़े नेताओं में आपा-धापी मची है तो बाजपेयी जी को इसके लिए मुखौटा या मोहरा बनने में क्यों एतराज होगा ?
वैसे भाजपा आलाकमान में वर्चस्व के लिए बाजपेयी और आडवाणी खेमे में जैसी खींच-तान चल रही है उसे देखते हुए बाजपेयी जी ने मोहरा बनने की मौन स्वीकृति देकर आडवाणी खेमे को पहली शिकस्त दी है।
भाजपा के दावे और उनकी असलियत आइए भाजपा के चुनावी दावों और उनकी नैतिकता का बेबाक मूल्यांकन करें जिसकी कसमें खाते भाजपा कल तक थकती नहीं थी। भाजपा को आखिर आज ऐसा कौन सा रास्ता मिल गया कि वह इतने आत्मविश्वास के साथ यह दावा कर पा रही है कि केंद्र में अगली सरकार भाजपा की ही होगी। और वह पिछली सभी सरकारों से ज्यादा मजबूत और स्थिर होगी। सच्चाई के लिए एक नजर अगर मध्यावधि चुनावों की घोषणा के बाद पैदा हुए राजनैतिक घटनाक्रम पर डाले तो यह पता चलता है कि कोई भी दल अकेले चुनावों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा है। जनादेश का अकेले सामना करने का साहस आज किसी भी दल में नहीं है। सभी दल चाहे वो भाजपा ही क्यों न हो चुनाव में बहुमत पाने के लिए एक दूसरे से नैतिक या अनैतिक गठजोड़ करने में जुटे हुए हैं। सभी की मंशा केंद्र में अपने गठबंधन की सरकार बनाने की है। इसमें भाजपा का मामला विशेष रूप से हास्यादपद लगता है। क्योंकि इसी भाजपा ने 18 महीने पहले अपनी अल्पमत सरकार बचाने के लिए किसी भी ऐसे दल से गठजोड़ करने से या समर्थन लेने से इंकार कर दिया था जिससे उसका वैचारिक समभाव न हो। इस श्रृखला में उस समय कितने ही ऐसे दल आते थे जिनका भाजपा से कोई वैचारिक तालमेल नहीं था और जो भाजपा को साम्प्रदायिक कह कर राजनैतिक अछूत मानते थे। भाजपा ने उस समय इन दलों से ना तो समर्थन की गुहार की और ना ही अपनी सरकार बचाने के लिए किसी गठजोड़ की प्रत्यक्ष कोशिश की। लेकिन आज भाजपा लगभगग सभी दलों से अपने प्रभाव रहित और कम प्रभाव वाले राज्यों में गठजोड़ कर रही है और चुनावी तालमेल बैठा रही है। भाजपा कल तक भ्रष्टाचार के सख्त खिलाफ थी लेकिन हाल ही में तमिलनाडू में जयललिता के साथ उसने चुनावी गठजोड़ किया। क्या यह भाजपा का अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि के साथ समझौता नहीं है? उड़ीसा में भाजपा ने जनता दल में विघटन को उकसाया। नवीन पटनायक के साथ समझौता किया। क्या इससे भाजपा की डेढ साल पुरानी जोड़-तोड़ विरोधी नीति का हनन नहीं होता ? भाजपा आज अगर भ्रष्टाचार के मामलों में लिप्त लालू यादव से कोई समझौता नहीं कर रही तो ऐसा इसलिए है कि लालू यादव स्वयं भाजपा के ही विरूद्ध धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाए हुए हैं। कल यदि भाजपा को अपनी सरकार बनाने के लिए लालू यादव की शरण में भी जाना पड़ जाए तो वह हिचकिचाएगी नहीं। बल्कि किसी नई मजबूरी की आड़ में गठजोड़ कर लेगी। जैसा कि कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश में किया। वहां अपनी सरकार बचाने के लिए भाजपा ने कांग्रेस में टूट तो उकसाई ही साथ ही अपराधिक छवि वाले विधायकों का भी समर्थन लिया। कल्याण सिंह इसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करने की भाजपा की मजबूरी मानते हैं। सत्ता लोलुप्ता और अवसरवादिता के ऐसे नमूने पेश करके भाजपा आखिर क्या सिद्ध कर रही है ? अगर ऐसे ही रास्ते अपनाए गए तो भाजपा बेशक अपना बहुमत सिद्ध कर देगी। भले ही जनादेश स्पष्टतः उसके हक में हो या न हो।
सक्षम प्रधानमंत्रh का दावा भाजपा का दूसरा दावा है कि बाजपेयी जी के रूप में वह देश को एक सक्षम प्रधानमंत्रh देगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि बाजपेयी जी एक सुलझी हुई राजनैतिक शख्सियत हैं। पर वह कितने सक्षम प्रधानमंत्रh साबित होंगे, इस बात का अंदाजा लगाने के के लिए थोड़े चिंतन और बतौर प्रधानमंत्रh उनके कार्यकाल की उपलब्धियों का अवलोकन करना जरूरी है। बाजपेयी जी के नेतृत्व में बनी भाजपा की 13 दिन की अल्पमत सरकार ने अपने कार्यकाल में कुछ अजीब निर्णय लिए। ऐसे फैसले की उम्मीद बाजपेयी सरिखे नेता से नहीं की जा सकती थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि बतौर प्रधानमंत्रh बाजपेयी जी की एक मात्रा उपलब्धि यही थी कि जाते-जाते उन्होंने एनरा¡न जैसे राष्ट्रीयहित विरोधी समझौते पर हस्ताक्षर किए। जबकि एनरा¡न जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और परियोजनाओं की गैर जरूरतमंदी पर उन दिनों अच्छी-खासी चर्चा थी। खासकर राष्ट्रीय सेवक संघ ही स्वदेशी आंदोलन के तहत एनराॅन के विरूद्ध मोर्चा जमाए हुए था। पर तमाम विरोधों के बावजूद बाजपेयी सरकार ने एनरा¡न परियोजना को स्वीकृति दे दी।
राजनीति में बाजपेयी जी का सत्ता और विपक्ष का अच्छा अनुभव है। बाजपेयी जी जैसे बड़े नेताओं से यह उम्मीद की जाती है कि तमाम राजनैतिक विरोधों के बावजूद वह अपनी सही बात को मनवा सकेंगे। पर ऐसे अनेक मौके आए जब बाजपेयी जी के निर्णय में साहस की कमी साफ झलकती थी। इसी कारण से राष्ट्रीय हित के मुद्दों की राजनीति में बाजपेयी जी की अपने राजनैतिक अनुभव और कद के अनुसार कोई विशेष उपलब्धि नहीं हS। जबकि उनसे कहीं कम अनुभव वाले नेताओं ने राजनैतिक जोर पर अपने मुद्दांे पर समझौता करवा लिया। मंडल के मुद्दें पर अगर रामविलास पासवान अपनी शर्तें बदस्तूर मनवा ले गए तो दूसरी तरफ बाजपेयी जी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर आरंभ में उग्र रवैया अपनाने के बाद धीरे-धीरे नर्म पड़ने लगे। अगर बाजपेयी जी मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर अपनी पार्टी की नीतियों से सहमत नहीं थे तो उन्हें शुरू से ही असहमति जतानी चाहिए थी। उन्हें यह भी देखना चाहिए था कि भाजपा जैसा राष्ट्रीय दल किसी ऐसे संवेदनशील मुद्दें पर वोटों की राजनीति ना करे जिस पर उसको बाद में पीछे हटना या नरम रूख अपनाना पड़े। पर बाजपेयी चुप रहे। जब मंदिर-मस्जिद मुद्दें पर स्थिति बेकाबू हो गई तो भाजपा ने बाजपेयी जी की विनीत छवि को भुनाया। बाजपेयी जी को ही भाजपा की ओर से इस दुर्घटना की निंदा करने की लिए चुना गया था।
हाल ही में पेट्रोल कीमतों में हुई तेज वृद्धि को लेकर बतौर विपक्षी नेता बाजपेयी जी ने आपत्ति जताई थी। उनका आश्वासन था कि वह इस मुद्दें को सदन में उठाएंगे। पर वक्त आने पर बाजपेयी जी अन्य मुद्दों की आड़ में इससे किनारा कर गए। विपक्ष के नेता के रूप में बाजपेयी के तेवर आक्रामक नहीं रहे। उनसे ज्यादा आक्रामक छवि तो उनसे कम कद वाले भाजपा नेताओं की रही है। बाजपेयी जी ने राजनीति के केंद्र में रहते हुए भी विवादों से दूर रहने की कोशिश की है। भले ही इसके लिए उन्हें अपने मुद्दों और शर्तों से समझौता करना पड़ा हो। आज राजनीति का जैसा माहौल है उसके लिए गुजराल या बाजपेयी जी जैसे प्रधानमंत्रh शायद उचित न बैठें। अपनी सौम्य और मैत्रिपूर्ण छवि को बनाए रखने के लिए गुजराल ने प्रधानमंत्रh पद पर रहते हुए भी जिस तरह एक के बाद एक समझौते किए उससे यह सीख लेना काफी है कि प्रधानमंत्रh पद किसी ऐसे व्यक्ति को सौंपना जिसे मुद्दों से ज्यादा अपनी छवि की चिंता हो, गंभीर चिंतन का विषय है। प्रधानमंत्रh को तो हर हाल में राष्ट्रीय हित को सर्वोपरि रखना चाहिए ना की पार्टी के हितो को या निजी स्वार्थों को। उसमें सच को सच कहने का साहस हो चाहे उसका राजनैतिक अंजाम कुछ भी क्यों न हो।
स्थायित्व के खोखले दावे भाजपा स्थायित्व की बात करती है। उसका दावा है कि मध्यावधी चुनाव में भाजपा बहुमत पाएगी। केंद्र में स्थिर सरकार देगी। क्या बहुमत से स्थायित्व का कोई रिश्ता है ? भाजपा शासित राज्यों की स्थिति का जायजा लें तो भाजपा का यह दावा गलत सिद्ध होता है। अगर बहुमत ही स्थिरता की गारंटी है तो गुजरात में भाजपा क्यों स्थायित्व नहीं दे सकी ? वहां तो भाजपा के पास दो-तिहाई बहुमत था। जाहिर है कि आलाकमान की कमजोर पकड़ थी। नैतिकता व मूल्यों का आवरण आपसी मतभेद व अंतर्कलह को ज्यादा देर तक नहीं ढक सका। गुजरात में भाजपा के स्थिरता के दावे का सच सामने आ गया। दिल्ली में भी तो भाजपा बहुमत में है। ‘दिल्ली के हालात’ आज किस से छुपे हैं ? यहां भी भाजपा का बहुमत निजी महत्वाकांक्षाओं और अंतर्कलह का शिकार हो रहा है। राज्य में कानून व्यवस्था दिनो-दिन गिरती जा रही है। भाजपा सरकार का कहना है कि कानून व्यवस्था राज्य सरकार का विषय नहीं है बल्कि केंद्रीय सरकार का है। तो क्या इन पांच वर्षों में एक जिम्मेदार सरकार का यह कर्तव्य नहीं था कि वह कि वह केंद्र से पुलिस व्यवस्था के हस्तांतरण की सार्थक कोशिश करती? राजस्थान में भ्रष्टाचार और असंतोष भाजपा के शासन का ही सूचक है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेतृत्व में अपराधिकरण और भ्रष्टाचारिकरण के बारे में पहले ही बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। उस पर ज्यादा शोध की जरूरत नहीं है।
दरअसल सत्ता में काबिज होने की भाजपा की ब्याकुलता सहानुभूति का भी विषय है। भारत जैसे विशाल लोकतंत्रा का आज सबसे बड़ा राजनैतिक दल कब तक अपनी नीतियों, सिद्धांतों और मूल्यों से समझौता न करने का झूठा दिखावा करके खुद को सत्ता सुख से वंचित रख सकता है ? जबकि उससे कहीं छोटे और राज्य स्तर के दल अवसरवादी गठजोड़ करके सत्ता का सुख भोग रहे हैं। भाजपा कब तक अपने सिपाहियों को सत्ता के दरवाजे तक ला कर उनसे कदम ताल करवाती रहेगी ? भाजपा को भी यह डर है कि जिस तरह उत्तर प्रदेश में सत्ता का लालच देकर उसने दूसरे दलों में सेंध लगाई है वैसे ही केंद्र में भी दूसरे दल भाजपा के सांसदों को सत्ता प्रलोभन में फंसा कर भाजपा में जोड़-तोड़ करा सकते हैं। इसलिए भाजपा साम, दाम, दंड, भेद से केंद्र तक पहुंचने की कोशिश कर रही है। सत्ता के केंद्र तक पहुंचने के लिए वो आज कैसा भी वादा कर सकती है। बहुमत का। स्थायी सरकार का। सक्षम प्रधानमंत्रh का। पर यह देखना मतदाता का फर्ज है कि भाजपा के इन दावों में कितना दम है और कितनी अवसरवादिता।